क्या करें जा के गुलिस्ताँ में हम हैं ब-कुंज-ए-क़फ़स फ़ुग़ाँ में हम जानते आप से जुदा तुझ को करते गर फ़र्क़ जिस्म-ओ-जाँ में हम हैं तजल्ली-ए-ज़ात के तेरी एक पर्दा सा दरमियाँ में हम गुल का ये रंग है तो अब इक दिन आग रख देंगे आशियाँ में हम वाँ तग़ाफ़ुल ने अपना काम किया याँ रहे मेहर के गुमाँ में हम आसमाँ को निशाना करते हैं तीर रखते हैं जब कमाँ में हम मर के निकले क़फ़स से ख़ूब हुआ तंग आए थे इस मकाँ में हम गर यही आह है तो देखोगे रख़्ने कर देंगे आसमाँ में हम शाख़-ए-गुल के गले से लग लग कर रोते हैं मौसम-ए-ख़िज़ाँ में हम बाग़ तक जाते हाँ अगर पाते ताक़त उस जिस्म-ए-ना-तवाँ में हम 'मुसहफ़ी' इश्क़ कर के आख़िर-कार ख़ूब रुस्वा हुए जहाँ में हम