क्या क्या न तेरे सदमे से बाद-ए-ख़िज़ाँ गिरा गुल बर्ग सर्व फ़ाख़्ता का आशियाँ गिरा लिखने लगी क़ज़ा जो हमारी फ़तादगी सौ बार हाथ से क़लम-ए-दो-ज़बाँ गिरा जब पहुँचे हम किनारा-ए-मक़्सूद के क़रीब तब नाख़ुदा जहाँ से उठा बादबाँ गिरा मूबाफ़-ए-सुर्ख़ चोटी से क्या उन की खुल पड़ा एक साइक़ा सा दिल पे मिरे ना-गहाँ गिरा ता आसमाँ पहुँच के हुई आह सर-निगूँ या रब हो ख़ैर फ़ौज-ए-अलम का निशाँ गिरा उठ कर चला जो पास से उन के तो घर तलक हर हर क़दम पे ज़ोफ़ से मैं ना-तवाँ गिरा देखा जो दश्त-ए-नज्द में हाल-ए-तबाह-ए-क़ैस महमिल से लैला कूद पड़ी सार-बाँ गिरा दोज़ख़ पे क्यूँ न हो दिल-ए-'बीमार' ताना-ज़न आतिश से इश्क़ की है पतिंगा यहाँ गिरा