क्या क्या सुपुर्द-ए-ख़ाक हुए नामवर तमाम इक रोज़ सब को करना है अपना सफ़र तमाम मेरी नज़र ने लूट लिए जल्वा-हा-ए-हुस्न हसरत से देखते ही रहे दीदा-वर तमाम तुम ने तो अपना कह के मुझे लूट ही लिया मातम-कुनाँ है मेरे लिए घर का घर तमाम माना कि मेरे लब न हिले रोब-ए-हुस्न से रूदाद-ए-दिल तो कह ही गई चश्म-ए-तर तमाम अब दीदनी है आप के बीमार-ए-ग़म का हाल मायूस आ रहे हैं नज़र चारा-गर तमाम राह-ए-वफ़ा में हद से हम आगे गुज़र गए दो-गाम चल के बैठ गए राहबर तमाम छोड़े हैं हम ने नक़्श-ए-मोहब्बत हर इक जगह वाक़िफ़ हमारे हाल से हैं बाम-ओ-दर तमाम