क्या शहर में है गर्मी-ए-बाज़ार के सिवा सब अजनबी हैं एक दिल-ए-ज़ार के सिवा इस दश्त-बे-खु़दी में कि दुनिया कहें जिसे ग़ाफ़िल सभी हैं इक निगह-ए-यार के सिवा चेहरों के चाँद राख हुए बाम बुझ गए कुछ भी बचा न हसरत-ए-दीदार के सिवा आलम तमाम तीरगी-ए-दर्द-ए-मुज़्महिल हाँ इक फ़रोग़-ए-शोला-ए-रुख़्सार के सिवा सारी शफ़क़ समेट के सूरज चला गया अब क्या रहा है मौज-ए-शब-ए-तार के सिवा जिस सम्त देखिए है सलीबों की इक क़तार कोई उफ़ुक़ नहीं उफ़ुक़-ए-दार के सिवा