क्या शहर-ए-नौ से मौसम-ए-सफ़्फ़ाक कम हुए अच्छा हुआ कि कुछ ख़स-ओ-ख़ाशाक कम हुए हर लम्हा सीना ताने खड़े रास्ते में हैं मेरे सफ़र के ख़ार भी क्या ख़ाक कम हुए हर आदमी तो आज ज़हीन-ओ-फ़तीन है दौर-ए-जदीद में कहाँ चालाक कम हुए ये जानने की आज भी कोशिश किसी ने की क्यों फ़लसफ़ी के पास भी इदराक कम हुए शाम-ओ-सहर तो इक ही फ़ज़ा करती है तवाफ़ आँखों से कब नज़ारा-ए-ग़मनाक कम हुए अब भी रिवाज-ओ-रस्म वही हैं मगर कहाँ उर्यानियत के पर्दा-ए-पोशाक कम हुए 'आतिश' यही बहार की सौग़ात कम नहीं इस बार-ए-गुल के दामन-ए-सद-चाक कम हुए