क्या सितम कर गई ऐ दोस्त तिरी चश्म-ए-करम जैसे तेरे नहीं दुनिया के गुनहगार हैं हम कोई आलम हो बहर-हाल गुज़र जाता है हम न सरगश्ता-ए-राहत हैं न आशुफ़्ता-ए-ग़म तिरी ज़ुल्फ़ों की घनी छाँव बहुत दूर सही जादा-पैमा हैं हवादिस की कड़ी धूप में हम निकहत-ए-गुल से कुछ इस तरह मुलाक़ात हुई याद आया तिरी बेगाना-वशी का आलम हम हैं तूफ़ान-ए-मलामत है गली है तेरी हुस्न-ए-तक़दीर से होते हैं ये हालात बहम ले गया इश्क़ किसी शाहिद-ए-नादीदा तक मुद्दतों ज़ौक़-ए-परस्तिश ने तराशे थे सनम हम ने हर उक़्दा-ए-दुश्वार का मुँह चूम लिया कितने दिलकश हैं तिरी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर के ख़म कू-ए-क़ातिल ही सही मंज़िल-ए-राहत न सही थक के बैठे हैं कि आते हैं बहुत दूर से हम कू-ए-जानाँ में कहीं आज तो हम भी थे 'रविश' शुक्र है हम को न पहचान सके दैर ओ हरम