क्या सुब्ह से ग़रज़ मिरी क्या शाम से ग़रज़ ऐ ख़ुश-अदा है मुझ को तिरे काम से ग़रज़ इक बंदगी के शहर के मसरूफ़-ए-कार को तारीफ़ से ग़रज़ है न दुश्नाम से ग़रज़ ऐ इर्तिक़ा-मिज़ाज तुझे ऐसा क्या हुआ वाबस्ता हो गई तिरी औहाम से ग़रज़ मैं तो मुसाफ़िर-ए-र-ए-आली-नसीब हूँ अस्बाब के लिए मुझे हर काम से ग़रज़ बस इतना जान लीजिए सच्चाई के तुफ़ैल शाइ'र हूँ कुछ तो है मुझे इबहाम से ग़रज़ जो मस्त-ए-शाद-काम हो फ़िक्रों के दरमियाँ उस के लबों को क्यों हो मय-ओ-जाम से ग़रज़ 'शारिक़' मुलाज़मत का है ये आख़िरी पड़ाव क्यों हो अब इख़्तिलाफ़ के हंगाम से ग़रज़