क्या तरह है आश्ना गाहे-गहे ना-आश्ना या तो बेगाने ही रहिए होजिए या आश्ना पाएमाल-ए-सद-जफ़ा ना-हक़ न हो ऐ अंदलीब सब्ज़ा-ए-बेगाना भी था इस चमन का आश्ना कौन से ये बहर-ए-ख़ूबी की परेशाँ ज़ुल्फ़ है आती है आँखों में मेरी मौज दरिया-आश्ना रोना ही आता है हम को दिल हुआ जब से जुदा जाए रोने ही की है जावे जब ऐसा आश्ना ना-समझ है तो जो मेरी क़दर नईं करता कि शोख़ कम बहुत मिलता है फिर दिल-ख़्वाह इतना आश्ना बुलबुलें पाईज़ में कहती थीं होता काशके यक मिज़ा रंग फ़रारी इस चमन का आश्ना को गुल-ओ-लाला कहाँ सुम्बुल समन हम-नस्तरन ख़ाक से यकसाँ हुए हैं हाए क्या क्या आश्ना क्या करूँ किस से कहूँ इतना ही बेगाना है यार सारे आलम में नहीं पाते किसी का आश्ना जिस से मैं चाही विसातत उन ने ये मुझ से कहा हम तो कहते गर मियाँ हम से वो होता आश्ना यूँ सुना जा है कि करता है सफ़र का अज़्म-जज़्म साथ अब बेगाना वज़्ओं के हमारा आश्ना शे'र 'साइब' का मुनासिब है हमारी ओर से सामने उस के पढ़े गर ये कोई जा आश्ना ता-ब-जाँ मा हमरहीम व ता-ब-मंज़िल दीगराँ फ़र्क़ बाशद जान-ए-मा अज़-आश्ना ता-आश्ना दाग़ है ताबाँ अलैहिर्रहमा का छाती पे 'मीर' हो नजात उस को बेचारा हम से भी था आश्ना