क्या तर्ज़-ए-कलाम हो गई है हर बात पयाम हो गई है कुछ ज़हर न थी शराब-ए-अंगूर क्या चीज़ हराम हो गई है आगे तो नहीं नहीं सुनी थी अब तकिया-कलाम हो गई है जाते जाते पयाम-बर को हर सुब्ह से शाम हो गई है अब देखिए मश्क़-ए-पाएमाली तारीफ़-ए-ख़िराम हो गई है पहुँचे हैं जब उस की बज़्म में हम मज्लिस ही तमाम हो गई है आलम को है दावा-ए-मोहब्बत ये ख़ास भी आम हो गई है उस बुत के हमीं नहीं हैं बंदे मख़्लूक़ ग़ुलाम हो गई है बर्बाद न होगी तेरी उल्फ़त तज्वीज़ मक़ाम हो गई है जागीर जुनूँ की क़ैस के बा'द अब 'दाग़' के नाम हो गई है