क्या था अज़ल से क़ब्ल बताता नहीं कोई ये दास्ताँ शुरूअ से सुनाता नहीं कोई बातिल हर एक बज़्म में बाला-नशीन है हक़ को अब अपने पास बिठाता नहीं कोई सहरा है कोह-ओ-दश्त हैं वीराँ मज़ार हैं जाए कहीं भी जिस को बुलाता नहीं कोई आते हैं आते आते सब आदाब-ए-आशिक़ी दिल ख़ुद से सीखता है सिखाता नहीं कोई नाचीज़ से हुज़ूर कोई काम है ज़रूर यूँ मुफ़्त में शराब पिलाता नहीं कोई किस को है दोस्त फ़ुर्सत-ए-नाज़--ओ-नियाज़ अब रूठें किसी से क्या कि मनाता नहीं कोई रख़्त-ए-सफ़र उठा 'सदा' जाना है अब वहाँ वापस जहाँ से लौट के आता नहीं कोई