क्यों हुस्न-ए-तबस्सुम की तकमील नहीं होती हर सूरत-ए-गुल उन की तमसील नहीं होती करने को उजाला तो कर देती है गिर पड़ कर हर बर्क़ सर-ए-मंज़िल क़िंदील नहीं होती गुल बनते हुए शायद देखा नहीं कलियों को क्या चीज़ जवानी में तब्दील नहीं होती होता न अगर दामन ये चाक जुनूँ में भी रुस्वाई नहीं होती तज़लील नहीं होती आँखें ही समझती हैं आँखों की ज़बाँ 'मंज़र' अफ़्साना-ए-मुबहम की तफ़्सील नहीं होती