लब-बस्ता ख़स्ता-हाल परेशान हैं बहुत ऐसे भी तेरे शहर में इंसान हैं बहुत हर सम्त तेरे आने से गुलज़ार थे खिले तुम जा चुके तो रास्ते सुनसान हैं बहुत अंधे सफ़र पे चल पड़े मंज़िल कहाँ मिले हम ज़िंदगी की राह से अंजान हैं बहुत आँखें ब-वक़्त-ए-मर्ग हैं उस शख़्स की खुली शायद कि दिल में आज भी अरमान हैं बहुत हम ने तुम्हारी ज़ुल्फ़ की ख़ुशबू ही की तलब ये जान कर कि ज़ुल्फ़ में पेचान हैं बहुत