लब चुप हैं तो क्या दिल गिला-पर्दाज़ नहीं है सब कुछ है ख़मोशी में इक आवाज़ नहीं है कितना ही वो झिड़कें मैं कहे जाता हूँ अपनी ग़ैरत मिरी अब कुछ ख़लल-अंदाज़ नहीं है पहूचुंगा ज़रूर आज मैं उस शोख़ के घर में दीवार तो नीची है जो दर-बाज़ नहीं है इस सम्त मरज़ इश्क़ का अंजाम को पहूँचा इस सम्त तवज्जोह का भी आग़ाज़ नहीं है क्या सादा-दिली है कि तिरी चीन-ए-जबीं को मैं नाज़ समझता हूँ मगर नाज़ नहीं है मरना था कि सेहत मरज़-ए-इश्क़ से पाई अब कुछ भी तबीअ'त ना-साज़ नहीं है क्यूँ सच ये कहा उस ने कि उल्फ़त नहीं मुझ से ये ऐब ही ज़ालिम में कि दम-बाज़ नहीं है रोते हुए जीने से अजल इश्क़ में अच्छी मुर्दे में ये ख़ूबी है कि ग़म्माज़ नहीं है ज़िल्लत मुझे मंज़ूर मगर आऊँ तिरे घर क्या हर्ज मोहब्बत का जो ए'ज़ाज़ नहीं है क्यूँ बैठे हैं हम वादा-ए-महबूब पे ख़ुश ख़ुश क्या खोए तलव्वुन भी दर-अंदाज़ नहीं है ऐ 'शौक़' कहे देती है कुछ शक्ल ख़मोशी चुप क्यूँ हो अगर दिल में कोई राज़ नहीं है