लब हैं ख़ामोश ज़बाँ सल्ब निगाहें क़ैदी ज़िंदगी नाम के ज़िंदाँ में हैं साँसें क़ैदी कल जो खुलतीं थीं मोहब्बत की हरारत पा कर हो गईं आज वो बे-बाक़ सी बाहें क़ैदी कोई आवाज़ न सिसकी न कोई चीख़ कहीं दर्द महबूस है सहमी हुई आहें क़ैदी दो घड़ी को ही हक़ीक़त ये भुलाने के लिए ख़्वाब देखे कोई कैसे कि हैं आँखें क़ैदी यास के शहर में उम्मीद-ए-सहर कौन करे जब अँधेरों ने बना रक्खी हों रातें क़ैदी दश्त-ए-हस्ती का है दरपेश सफ़र मुद्दत से बे-निशाँ मंज़िल-ए-मक़्सूद है राहें क़ैदी गुलशन-ए-ज़ीस्त पे डाला है ख़िज़ाँ ने डेरा क्या ख़बर किस के चमन की हैं बहारें क़ैदी हम गुनहगार-ए-मोहब्बत की मुआ'फ़ी भी नहीं हाथ उठते ही नहीं लब पे दुआएँ क़ैदी ज़ख़्म माज़ी के 'हिना' रहते हैं हर दम ताज़ा दिल के इक बंद दरीचे की हैं यादें क़ैदी