लब क्या खुले कि क़ुव्वत-ए-गोयाई छिन गई पेश-ए-निगाह वो थे कि बीनाई छिन गई होंटों पे दहशतों की थी तुग़्यानी हर तरफ़ सारे गवाह ख़ुश्क थे सच्चाई छिन गई औरों के नाम ही सही सब सोहबतें तिरी तेरे बग़ैर भी मिरी तन्हाई छिन गई ज़ुल्म-ओ-सितम की तख़्त-नशीनी के दिन जो आए घर घर उदास शहर की रानाई छिन गई दस्त-ए-निगाह जब भी उठे हैं उफ़ुक़ की सम्त आफ़ाक़ के नसीब की गहराई छिन गई इतनी लज़ीज़ तर थीं ग़लत-कारियाँ 'सबा' मिल कर गले बुराई से अच्छाई छिन गई