लब-ए-ख़ामोश में पिन्हाँ है कोई राज़ नहीं ज़िंदगी साज़ है जिस में कोई आवाज़ नहीं क्यूँ न आग़ोश-ए-तख़य्युल में मैं उड़ता ही रहूँ दर-हक़ीक़त है मुझे ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ नहीं मेरे किरदार में है नेकी बदी पर भारी क्यूँ वो कर पाए बदी को नज़र-अंदाज़ नहीं ये तअ'ल्लुक़ जो किया क़त्अ हुआ क़िस्सा तमाम ये नई दास्ताँ का नुक़्ता-ए-आग़ाज़ नहीं रू-ब-रू आइने के जाऊँ तो दिखता है मुझे अजनबी शख़्स जो हम-शक्ल-ओ-हम-आवाज़ नहीं हूँ तो हरगिज़ नहीं पाबंद-ए-क़वाएद 'नाक़िद' अपनी आवारगी पे मुझ को मगर नाज़ नहीं