लबों को खोल तो कैसा भी हो जवाब तो दे न बाँट सूद-ओ-ज़ियाँ को मगर हिसाब तो दे वफ़ा, ख़ुलूस ओ मोहब्बत को फिर समझना है कहाँ लिखे हैं ये अल्फ़ाज़ तू किताब तो दे अब इस तरह भी रिवायत से इंहिराफ़ न कर बदल अगरचे तू अच्छा न दे, ख़राब तो दे ये क्या कि अपनी ही रफ़्तार पर है वो नाज़ाँ किसी के रेंगते क़दमों को आब-ओ-ताब तो दे छलक रहा है ज़माने के सब्र का प्याला हमारे अहद के फ़िरऔन को अज़ाब तो दे तपिश ने वक़्त की झुलसा के उन को रक्खा है ख़िज़ाँ-नसीबों को थोड़ा सही शबाब तो दे है इख़्तियार में जितना तिरे तू उतना तो कर न मिल सके कोई ताबीर, उन को ख़्वाब तो दे मैं तेरी तंग-निगाही की क्या करूँ तावील सुलगती आँखों को पानी न दे सराब तो दे यूँ नस्ल-ए-नौ की ज़ेहानत को मुम्तहिन न परख जिसे पढ़े ये नई नस्ल वो किताब तो दे किसी को क्या है ग़रज़ जो पढ़े तिरी रूदाद करे अपील किसी को वो एक बाब तो दे तड़प रही है ज़मीं कब से मुंसिफ़ी के लिए नबी नहीं तो ज़माने को 'बू-तुराब' तो दे