लफ़्ज़ लिखना है तो फिर काग़ज़ की निय्यत से न डर इस क़दर इज़हार की बे-मानविय्यत से न डर देख! गुलशन में अभी शाख़-ए-तहय्युर बाँझ है फूल होना है तो खिलने की अज़िय्यत से न डर हमरह-ए-मौसम सफ़र की बस्तियों के दरमियाँ नक़्श-बर-दीवार बारिश की वसिय्यत से न डर एक हल्की सी सदा तो बिन ज़बाँ रखता है तू चार जानिब ख़ामुशी की अक्सरिय्यत से न डर आसमाँ इक दिन पतिंगा हो सर-ए-शम्-ए-ज़मीं मोम कर अपने लहू को जल अज़िय्यत से न डर