लफ़्ज़ निकला ज़बान से बाहर तीर जैसे कमान से बाहर मेरे वहम-ओ-गुमान से बाहर तेरी अज़्मत बयान से बाहर सारी दुनिया उसी में रहती थी मैं रहा जिस मकान से बाहर सब को मंज़ूर किस तरह होता फ़ैसला था गुमान से बाहर ज़ेहन-ओ-दिल पर हुकूमतें जिस की हो गया कैसे ध्यान से बाहर रास्ते मुंतज़िर हैं बरसों से आए कोई मकान से बाहर सब से पहले वही बिके हैं 'निसार' जो पड़े थे दुकान से बाहर