लफ़्ज़ तो हों लब-ए-इज़हार न रहने पाए अब समाअत पे कोई बार न रहने पाए किस तरह के हैं मकीं जिन की तग-ओ-दौ है यही दर तो बाक़ी रहें दीवार न रहने पाए इस में भी पहलू-ए-तस्कीन निकल आता है एक ही सूरत-ए-आज़ार न रहने पाए ज़ेहन-ता-ज़ेहन महकता ही रहे ज़ख़्म-ए-हुनर फ़स्ल-ए-हर्फ़ ओ लब-ए-इज़हार न रहने पाए अब के मौसम में ये मेयार-ए-जुनूँ ठहरा है सर सलामत रहें दस्तार न रहने पाए कोई दरमाँ कि हवा चीख़ रही है 'मोहसिन' नख़्ल-ए-हस्ती पे कोई बार न रहने पाए