लगेगा अजनबी अब क्यों न शहर भर मुझ को बचा गया है नज़र तू भी देख कर मुझ को मैं घूम फिर के उसी सम्त आ निकलता हूँ जकड़ रही है तिरे घर की रहगुज़र मुझ को झुलस रहा है बदन ज़ेर-ए-साया-ए-दीवार बुला रहा है कोई दश्त-ए-बे-शजर मुझ को मैं संग-दिल हूँ तुझे भूलता ही जाता हूँ मैं हँस रहा हूँ तो मिल के उदास कर मुझ को मैं देखता ही रहूँगा तुझे किनारे से तू ढूँढता ही रहेगा भँवर भँवर मुझ को बनी हैं तुंद हवाओं की ज़र्द दीवारें उड़ा रहा है मगर शो'ला-ए-सफ़र मुझ को बना दिया है निडर ज़िद्दी ख़्वाहिशों ने 'नसीम' ख़ुद ए'तिमाद न था अपने आप पर मुझ को