लग़्ज़िश से रहनुमाओं की जब हम सँभल गए मंज़िल क़रीब आई तो रस्ते बदल गए हर राह-रौ से तेरा पता पूछते हुए हम राह-ए-दैर-ओ-का'बा से आगे निकल गए फूटी है जब भी तेरे तबस्सुम की इक किरन घबरा के ख़ुद-बख़ुद ही अंधेरे पिघल गए रिंदान-ए-तिश्ना-काम को अब मय से क्या ग़रज़ साक़ी की चश्म-ए-मस्त से जब दौर चल गए अब भी जबीन-ए-ज़ीस्त पे फ़ाक़ों की है शिकन माना कि ज़िंदगी के तक़ाज़े बदल गए उन के नुक़ूश-ए-पा का ये ए'जाज़ देखिए ज़र्रे मह-ओ-नुजूम के साँचे में ढल गए जब भी निखर गया मिरे शे'रों का बाँकपन ऐ दोस्त फ़िक्र-ओ-फ़न के कई दीप जल गए ऐसी चलीं हवाएँ हवादिस की ऐ 'निशात' अफ़्साना-ए-हयात के उनवाँ बदल गए