लहर उस आँख में लहराई जो बे-ज़ारी की हम ने हँसते हुए फिर कूच की तय्यारी की मुझ को जिस रात समुंदर ने उतारा ख़ुद में मैं ने उस रात भी साहिल की तरफ़-दारी की हम ने गिर्ये को भी आदाब के अंदर रक्खा अपने आ'साब पे वहशत न कभी तारी की नक़्श-ए-पा ढूँढता फिरता है सहर का वो भी जिस पे इक रात भी गुज़री नहीं बेदारी की रौशनी पर्दा-ए-मिज़गाँ से छिनी जाती है किस ने ये ख़्वाब-गह-ए-दिल में ज़िया-बारी की दिल में भर लाया हूँ महरूमी-ए-दुनिया 'सज्जाद' आज बाज़ार से फिर मैं ने ख़रीदारी की