लहरों में भँवर निकलेंगे मेहवर न मिलेगा हर मौज में पानी भी बराबर न मिलेगा गिर जाती है रोज़ एक परत राख बदन से जलने का समाँ फिर भी कहीं पर न मिलेगा चश्मक भी जो रखनी है तो चौथाई ज़मीं से शोरीदा ज़बाँ कैसे समुंदर न मिलेगा हर सम्त दिमाग़ों के तरंगों का है शब-ख़ूँ तकनीक की इस जंग में लश्कर न मिलेगा रस्ते ही में जल बुझती है महताबी-ए-अंजुम साबित को तो सय्यार का ज़ेवर न मिलेगा करते हैं हिफ़ाज़त सभी दीवार-ए-अना की रख़्ने के बराबर भी कहीं दर न मिलेगा कूज़ा-गर-ए-क़ामूस कहाँ 'ज़ेब' सा 'तफ़ज़ील' सिमटा हुआ काग़ज़ पे समुंदर न मिलेगा