लहू में डूब के निकली हिकायतें चुप हैं मोआ'मला है हमारा अदालतें चुप हैं यही है वक़्त का दस्तूर आज-कल शायद तमाम शहर जला और शहादतें चुप हैं ये किस का ग़म्ज़ा-ए-ख़ूँ-रेज़ है कि महफ़िल में किसी में दम नहीं सब की जसारतें चुप हैं न होगा कुछ भी तो हासिल सिवा शमातत के ये सोच सोच के अपनी जराहतें चुप हैं न चारागर है कोई अब न ग़म-गुसार कोई तमाम सिद्क़-ओ-सफ़ा की रिवायतें चुप हैं ये बस्तियाँ नहीं अब मुख़बिरों के मरकज़ हैं तो क्या अजब है अज़ीज़ो रिफाक़तें चुप हैं कलाइयों को मरोड़ेगा कौन ज़ालिम की कि इंक़लाब है ख़ुफ़्ता बगावतें चुप हैं हुआ ये क्या मिरे यारान-ए-तेज़-गाम के साथ इताब मोहर-ब-लब है शरारतें चुप हैं मिरे सिवा नहीं मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू अब भी ये और बात कि अब वो इनायतें चुप हैं ये किस गुमान में बैठे हो तुम मियाँ 'अज़हर' ये दौर वो है कि जिस में करामातें चुप हैं