लहू पुकार के चुप है ज़मीन बोलती है मैं झूमता हूँ कि ये काएनात डोलती है अभी ज़मीन पे उतरेगी उस दरीचे से वो रौशनी जो मुसाफ़िर की राह खोलती है मज़ा तो ये है कि वो ज़हर में बुझी आवाज़ कभी कभी मिरे कानों में शहद घोलती है अजीब रब्त है गूँगी रफ़ाक़तों से मुझे वो सोचता है तो मेरी ज़बान बोलती है तलाश में हूँ तवाज़ुन कहीं नहीं मिलता हर एक चेहरा को मेरी निगाह तौलती है जो बे-उड़ान हैं 'आलम' वो किस शुमार में हैं हवा भी उड़ते परिंदे के पर टटोलती है