लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़्गान-ए-तर सँभाले ये शाख़ वो नहीं जो बार-ए-समर सँभाले दीवाना हो के कोई फाड़ा करे गरेबाँ मुमकिन नहीं कि दामन वो बे-ख़बर सँभाले तलवार खींच कर वो ख़ूँ-ख़्वार है ये कहता मुँह पर जो खाते डरता हो वो सिपर सँभाले तकिए में आदमी को लाज़िम कफ़न है रखना बैठा रहे मुसाफ़िर रख़्त-ए-सफ़र सँभाले यक दम न निभने देती उन की तुनक-मिज़ाजी रखते न हम तबीअत अपनी अगर सँभाले वो नख़्ल-ए-ख़ुश्क हूँ मैं इस गुलशन-ए-जहाँ में फिरता है बाग़बाँ भी मुझ पर तबर सँभाले हर गाम पर ख़ुशी से वारफ़्तगी सी होगी लाना जवाब-ए-ख़त को ऐ नामा-बर सँभाले या फिर कतर पर उस के सय्याद या छुरी फेर बे-बाल-ओ-पर ने तेरे फिर बाल-ओ-पर सँभाले दर्द-ए-फ़िराक़ 'आतिश' तड़पा रहा है हम को इक हाथ दिल सँभाले है इक जिगर सँभाले