लम्हा गुज़र गया है कि अर्सा गुज़र गया है कौन वो जो वक़्त की साज़िश ये कर गया अब उम्र तो ये बीत चली सोचते तुम्हें इतना हुआ है हाँ कि ज़रा मैं सँवर गया सिमटा था जब तलक वो हथेली में ठीक था पहुँचा लबों पे लम्स तो नस-नस बिखर गया यूँ तो दहक रहा था वो सूरज सा दूर से जो पास जा के छू लिया कैसा सिहर गया देखूँ तुझे क़रीब से फ़ुर्सत से चैन से मेरा ये ख़्वाब मुझ को लिए दर-ब-दर गया इक रोज़ तेरा नाम सर-ए-राह ले लिया चलता हुआ ये शग़्ल अचानक ठहर गया मिस्रा सिसक रहा था अकेला जो देर से याद उस की आ गई तो ग़ज़ल में उतर गया