लम्हों का भँवर चीर के इंसान बना हूँ एहसास हूँ मैं वक़्त के सीने में गड़ा हूँ कहने को तो हर मुल्क में घूमा हूँ फिरा हूँ सोचूँ तो जहाँ था वहीं चुप-चाप खड़ा हूँ फ़ुटपाथ पे अर्से से पड़ा सोच रहा हूँ पत्ता तो मैं सरसब्ज़ था क्यूँ टूट गिरा हूँ इक रोज़ ज़र-ओ-सीम के अम्बार भी थे हेच बिकने पे जो आया हूँ तो कौड़ी पे बिका हूँ शायद कि कभी मुझ पे भी हीरे का गुमाँ हो देखो तो मैं पत्थर हूँ मगर सोच रहा हूँ हालात का धारा कभी ऐसे भी रुका है नादाँ हूँ कि मैं रेत के बंद बाँध रहा हूँ इक रेत की दीवार की सूरत थे सब आदर्श जिन के लिए इक उम्र मैं दुनिया से लड़ा हूँ अहबाब की नज़रों में हूँ गर वाजिब-ए-ताज़ीम क्यूँ अपनी निगाहों में बुरी तरह गिरा हूँ ऐ 'फ़ख़्र' गरजना मिरी फ़ितरत सही लेकिन जो ग़ैर की मर्ज़ी से ही बरसे वो घटा हूँ