लरज़ लरज़ तो गया इक चराग़-ए-नीम-शबी मगर सँभल के जला इक चराग़-ए-नीम-शबी सभी दिलों में अजब ख़ौफ़ था अँधेरे का मगर ज़रा न डरा इक चराग़-ए-नीम-शबी मैं सोचता था अकेला ही जल रहा हूँ यहाँ मिरा रफ़ीक़ हुआ इक चराग़-ए-नीम-शबी न जाने कहना था क्या उस ने सोने वालों से पुकारता ही रहा इक चराग़-ए-नीम-शबी तपिश हुरूफ़ की शायद उसी की लौ से मिली मिरी ग़ज़ल में जला इक चराग़-ए-नीम-शबी