लौ देने लगा है तिरी यादों का दिया फिर बहके न कहीं देखना जंगल की हवा फिर तज्दीद-ए-मोहब्बत का ख़याल आया है उस को पाए न कहीं जुर्म-ए-वफ़ा की वो सज़ा फिर शायद कि ली अंगड़ाई किसी चाँद-बदन ने हैजान सा ख़ामोश समुंदर में उठा फिर इफ़रीत-ए-शब-ए-तार ने लब खोले हैं क्या क्या ख़ामोशी-ए-सहरा से उठे कोई सदा फिर फिर ख़्वाब सजाने लगे पलकों पे दिवाने भौँरों को रिझाने लगी फूलों की अदा फिर तुम थे कि मिरे पाँव में ज़ंजीर थी 'बेताब' बे-नाम तअ'ल्लुक़ ही सही क्यों न रहा फिर