ले के ख़ुद पीर-ए-मुग़ाँ हाथ में मीना आया मय-कशो शर्म कि इस पर भी न पीना आया न पिलाना किसी मय-कश को न पीना आया तुझ को ज़ाहिद अगर आया भी तो कीना आया उम्र भर ख़ून-ए-जिगर बैठ के पीना आया आरज़ूओ तुम्हें मरना हमें जीना आया दिल ने देखा मुझे और मैं ने फ़लक को देखा बच के साहिल पे अगर कोई सफ़ीना आया किसी बदमस्त की याद आ गईं आँखें साक़ी जब छलकता हुआ आगे मिरे मीना आया इक ज़रा सी थी कभी की ख़लिश उस पर ऐ हश्र दिल में लेता हुआ ज़ाहिद वही कीना आया लड़खड़ाना कोई सीखा कोई सीखा मस्ती हम को आया तो फ़क़त ढाल के पीना आया ख़ुश हो ऐ चश्म कि है फ़स्ल यही रोने की मुज़्दा ऐ अब्र कि सावन का महीना आया पी ही लेनी थी जो मय-ख़ाने को आ निकला था तुझ को सोहबत का भी ज़ाहिद न क़रीना आया चाहा जो कुछ वो ज़माने ने किया नक़्श इस पर मैं तो सादा लिए इस दिल का नगीना आया आज तक दामन-ए-गुल चाक है ख़य्यात-ए-अज़ल तुझ को ख़िलअ'त भी हसीनों का न सीना आया देख चारों तरफ़ अपने कि तमाशा क्या है ले के इस बज़्म में तू दीदा-ए-बीना आया मुँह पे आशिक़ के मोहब्बत की शिकायत नासेह बात करने का भी नादाँ न क़रीना आया किस तरह मिलते हैं बिछड़ों से दिखा देंगे कभी दिल में वो तीर अगर चीर के सीना आया ढाल कर देते हैं किस को किसे बे-ढाले हुए मेरे साक़ी को तो ये भी न क़रीना आया ज़िंदगी करते हैं किस तरह ये सीखो इस वक़्त 'शाद' क्या नफ़अ' अगर मरने पे जीना आया