ले उड़े ख़ाक भी सहरा के परस्तार मिरी राह तकते ही रहे शहर के बाज़ार मिरी तेज़ आँधी ने किए मुझ पे बला के हमले फिर भी क़ाएम रही मिट्टी की ये दीवार मिरी छुप गया था मिरे जंगल में कोई साया सा आज तक उस के तआ'क़ुब में है तलवार मिरी गूँज उभरेगी मिरी रूह के सन्नाटों से सल्ब हो जाएगी जब ताक़त-ए-गुफ़्तार मिरी टूटती जाती हैं साँसों की शिकस्ता कड़ियाँ फैलती जाती है सहराओं में झंकार मिरी कितना बे-कैफ़ तमाशा-ए-बहाराँ निकला जब ख़िज़ाँ बन के बुझी ख़्वाहिश-ए-इज़हार मिरी हम-सफ़र चाँद न सूरज न सितारे निकले तेज़ है गर्दिश-ए-दौराँ से भी रफ़्तार मिरी आतिश-ओ-आब-ओ-हवा ख़ाक-ओ-ख़ला-ओ-अफ़्लाक कितने क़िलओं' पे ब-यक-वक़्त है यलग़ार मिरी ग़म ज़माने में कोई जिंस तो 'सिद्दीक़' नहीं क्या ख़रीदेंगे कोई चीज़ ख़रीदार मिरी