लिबास-ए-गुल में वो ख़ुशबू के ध्यान से निकला मिरा यक़ीन भी वहम-ओ-गुमान से निकला हमारे साथ ही अब आँधियाँ भी चलती हैं ये तर्ज़-ए-हम-सफ़री बादबान से निकला कुछ इस तरह से बंधे हैं ज़मीं की डोर से हम कि ख़ौफ़-ए-गुम-रही ऊँची उड़ान से निकला नक़ीब में ढूँढ रहा था फ़सील-ए-शब में मगर मिरा ग़नीम मिरे ही मकान से निकला अब इस के बा'द कोई रास्ता न कोई सफ़र क़दम हिसार-ए-ज़मान-ओ-मकान से निकला अजीब कश्मकश-ए-जब्र-ओ-इख़्तियार रही ग़म-ए-हयात इसी दरमियान से निकला नदी से प्यास मिली है इसी घराने को कि जिस के वास्ते पानी चटान से निकला