लीजिए ताबानी-ए-आलम के सामाँ हो गए दिल के ज़र्रे उड़ के हर जानिब परेशाँ हो गए दर्द-ए-तन्हाई से मर जाना तो कुछ मुश्किल न था क्या कहें ग़म से मगर कुछ अहद-ओ-पैमाँ हो गए इल्तिफ़ात-ए-दोस्त का मुमकिन नहीं कोई सिला कम है जान-ओ-दिल जो सर्फ़-ए-शुक्र-ए-एहसाँ हो गए तुझ से क्या लें इंतिक़ाम ऐ ख़ाक-ए-बे-बर्ग-ओ-नवा वो कहाँ हैं मेहर-ओ-मह तुझ में जो पिन्हाँ हो गए दावत-ए-जल्वा है फिर बर्क़-ए-निगाह-ए-नाज़ को जम्अ' फिर हस्ती के अज्ज़ा-ए-परेशाँ हो गए अब मैं समझा सीना-ए-सोज़ाँ के शक़ होने का राज़ आप पिन्हाँ क्या हुए गोया नुमायाँ हो गए जिन को होना ही न था राह-ए-मोहब्बत में ग़ुबार किस तरह वो ख़ाक के पुतले फिर इंसाँ हो गए ख़ाक-ए-दिल के चंद ज़र्रे उड़ गए थे एक दिन बन के तारे आसमानों पर दरख़्शाँ हो गए कुछ ख़याल-ए-दोस्त आया था कि आ पहुँची बहार जिस तरफ़ देखा गुलिस्ताँ ही गुलिस्ताँ हो गए हुस्न ने रोज़-ए-अज़ल जब रुख़ से सरकाई नक़ाब चंद जल्वे रंग बन कर बज़्म-ए-इम्काँ हो गए छा रहा है रंग हर जानिब बहार-ए-हुस्न का वा हैं जिन के दीदा-ए-दिल गुल-बदामाँ हो गए रफ़्ता रफ़्ता आरज़ू-ए-रस्तगारी मिट गई रह के ज़िंदाँ में 'जिगर' आज़ाद-ए-ज़िंदाँ हो गए