लोग बनते हैं होशियार बहुत वर्ना हम भी थे ख़ाकसार बहुत घर से बे-तेशा क्यूँ निकल आए रास्ते में हैं कोहसार बहुत तुझ से बिछड़े तो ऐ निगार-ए-हयात मिल गए हम को ग़म-गुसार बहुत हाथ शल हो गए शनावर के अब ये दरिया है बे-कनार बहुत हम फ़क़ीरों को कम नज़र आए इस नगर में थे शहरयार बहुत उस ने मजबूर कर दिया वर्ना हम को ख़ुद पर था इख़्तियार बहुत हम ही अपना समझ रहे थे उसे हो गए हम ही शर्मसार बहुत