लोग पत्थर के थे फ़रियाद कहाँ तक करते दिल के वीराने हम आबाद कहाँ तक करते आख़िरश कर लिया मिट्टी के हरम में क़याम ख़ुद को हम ख़ानमाँ-बर्बाद कहाँ तक करते एक जिंदान-ए-मोहब्बत में हुए हम भी असीर ख़ुद को हर क़ैद से आज़ाद कहाँ तक करते ख़ुद पे मौक़ूफ़ किया उस का फ़क़त दर्स-ए-विसाल हर नए दर्स को हम याद कहाँ तक करते कर लिया एक बयाबाँ को मुसख़्ख़र हम ने रोज़ तस्वीर को ईजाद कहाँ तक करते लोग ख़ामोश थे इसबात ओ नफ़ी के माबैन ऐसे माहौल में इरशाद कहाँ तक करते हर वजूद अपने लिए एक सवाली था 'तराज़' ख़ुद को हम माइल-ए-अबआद कहाँ तक करते