लोग सुब्ह ओ शाम की नैरंगियाँ देखा किए और हम चुप-चाप माज़ी के निशाँ देखा किए अक़्ल तो करती रही दामान-ए-हस्ती चाक चाक हम मगर दस्त-ए-जुनूँ में धज्जियाँ देखा किए ख़ंजरों की थी नुमाइश हर गली हर मोड़ पर और हम कमरे में तस्वीर-ए-बुताँ देखा किए हम तन-आसानी के ख़ूगर ढूँडते मंज़िल कहाँ दूर ही से गर्द-ए-राह-ए-कारवाँ देखा किए हम को इस की क्या ख़बर गुलशन का गुलशन जल गया हम तो अपना सिर्फ़ अपना आशियाँ देखा किए मौसम-ए-परवाज़ ने 'नजमी' पुकारा था मगर पर समेटे हम क़फ़स की तीलियाँ देखा किए