लोगों के पास दर्द की दौलत नहीं रही या'नी किसी को कोई ज़रूरत नहीं रही मसरूफ़ इस क़दर किया उस की तलाश ने मुझ को तो ख़ुद से मिलने की फ़ुर्सत नहीं रही दुनिया ने हर्फ़ हर्फ़ में तक़्सीम कर दिया अब ज़िंदगी किसी से इबारत नहीं रही अच्छा हुआ कि तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ ही कर लिया आँखों को इंतिज़ार की ज़हमत नहीं रही मैं क्या करूँ दिमाग़ ने तख़्ता उलट दिया अब दिल पे दोस्त तेरी हुकूमत नहीं रही गुम हो गए हैं सारे सलीक़े वफ़ाओं के अब इस जहाँ में रस्म-ए-मोहब्बत नहीं रही रुस्वाइयों ने घर की वो सर ही झुका दिया यूँ शहर में वो ऊँची इमारत नहीं रही 'रुख़्सार' मुफ़्लिसी के करिश्मे अजीब हैं ग़ुर्बत में दोस्ती भी सलामत नहीं रही