लू ही लू थी सबा तो थी ही नहीं ज़ीस्त राहत-फ़ज़ा तो थी ही नहीं उस की मिट्टी में ख़ू थी कूफ़े की उस में बू-ए-वफ़ा तो थी ही नहीं साथ रह कर भी इतनी दूरी हे वस्ल जैसी सज़ा तो थी ही नहीं टूट कर भी मैं कहकशाँ ही हूँ टूटने में फ़ना तो थी ही नहीं सिर्फ़ मलबा पड़ा था दुनिया का दिल में कोई दुआ तो थी ही नहीं अपनी सूरत से डर गया था कोई आइने की ख़ता तो थी ही नहीं वो समर-बार पेड़ था लेकिन उस के साए में जा तो थी ही नहीं जिस्म जबरन किसी से बाँधा है इस में दिल की रज़ा तो थी ही नहीं उस ने तोहफ़े में हिज्र भेजा है यह अज़िय्यत रवा तो थी ही नहीं आदमी था ख़ुदा न था 'फ़ौज़ी' ज़ीस्त उस की अता तो थी ही नहीं