लुंज वो पा-ए-तलब हूँ कहीं जा ही न सकूँ शल ये हो दस्त-ए-हवस हाथ बढ़ा ही न सकूँ ज़िद ये उस को है जो रोया मैं भी छुप कर जाऊँ खोल दी आँख नज़र ख़्वाब में आ ही न सकूँ देख कर हुस्न बुतों का जो ख़ुदा से फिर जाए दिल-ए-गुमराह को फिर राह पे ला ही न सकूँ मदद ऐ दस्त-ए-जुनूँ पैरहन-ए-गुल की तरह ये फटे जामा-ए-असली कि सिला ही न सकूँ या इलाही शब-ए-वसलत जो कहे जाने को पाँव सो जाएँ ये उस के कि जगा ही न सकूँ मैं वो ग़म-ख़्वार हूँ ग़म आँख की पुतली का तिरी दाना-ए-ख़ाल नहीं है कि जो खा ही न सकूँ हुस्न-ए-महफ़िल है तो होने दो उसी ख़ल्वत में बंद क़ुलियान नहीं हैं जो बुला ही न सकूँ सिफ़त साया वो इक जान-ए-दो-क़ालिब हूँ मैं दूर हो लाख कभी पास से जा ही न सकूँ नज़र उफ़्तादा वो हूँ अश्क-ए-चकीदा की तरह गिरूँ आँखों से तो नज़रों में समा ही न सकूँ ऐ कमाँ-दार जो तू मुझ को बुलाए सौ बार तीर-ए-जस्ता मैं नहीं हूँ कि फिर आ ही न सकूँ ऐ सनम जो तू न माने' हो तिरी महफ़िल से ग़ैर क्या नाज़ तिरा है कि उठा ही न सकूँ न सही वस्फ़-ए-दहन बाल तो सुलझाने दो ज़ुल्फ़ कुछ बात नहीं है जो बना ही न सकूँ खाऊँ सौगंद पे सहवन क़सम ऐ बुत तिरी क़समिया भी जो मैं खाऊँ कभी खा ही न सकूँ ता'ना-ए-ग़ैर से ऐ ज़ोफ़ जो बैठे दिल-ए-ज़ार बात वो बार-ए-गराँ हो कि उठा ही न सकूँ क्या तमाशा है कि नज़रों में है लेकिन ऐ 'शाद' क़ुर्ब-ए-शह-रग मैं जो ढूँडूँ उसे पा ही न सकूँ