लुत्फ़ हो गर तू हो और मय-ख़ाना हो मैं हूँ और मेरा दिल-ए-दीवाना हो जिस ज़बाँ पर हो तिरा अफ़्साना हो कोई हो अपना हो या बेगाना हो याँ तो है दीदार से तेरी ग़रज़ दैर हो काबा हो या बुत-ख़ाना हो जिस को देखा जलते ही देखा यहाँ शम्अ हो आशिक़ हो या परवाना हो हम को तो दो-गज़ ज़मीं दरकार है शहर हो बस्ती हो या वीराना हो दौर-ए-साक़ी में किसे गर्दिश नहीं शीशा हो साग़र हो या पैमाना हो क्या क़यामत हो जो 'अंजुम' हश्र में कोई सौदाई कोई दीवाना हो