लुटने वालो दिल-ए-बर्बाद की तौक़ीर न जाए घर चला जाए मगर हसरत-ए-ता'मीर न जाए शहर-ए-नौ क़िल’अ-ए-दिल कैसा खंडर है कि जहाँ कोई सय्याह न आए कोई रहगीर न जाए मैं तो ख़ुद ख़्वाबों को ता'बीर से कर दूँ महरूम ख़्वाब ऐसे हैं कि जिन से ग़म-ए-ता'बीर न जाए शहर से क़ाफ़िले लौटे हैं ये कहते सू-ए-दश्त इस ख़राबे में कोई साहब-ए-तौक़ीर न जाए जाने किस शो'ले से गूंधी गई मिट्टी मेरी आँधियाँ चलती रहीं ख़ाक की तनवीर न जाए