मआल-ए-दिल के लिए आज यूँ ख़ुदी तरसे कि ज़िंदगी के लिए जैसे ज़िंदगी तरसे ख़िरद-ब-दोश है तहज़ीब-ए-नौ मगर फिर भी जुनूँ-ब-दामाँ तमद्दुन को आगही तरसे जो अपना ख़ून-ए-जिगर पी के मस्त हो जाएँ अब ऐसे ज़र्फ़-परस्तों को तिश्नगी तरसे है अब भी सिलसिला-ए-दोस्ती जहाँ में मगर वफ़ा-शनास मोहब्बत को दोस्ती तरसे मक़ाम-ए-ज़ब्त ग़म-ए-इश्क़ में वो पैदा कर कि तू ख़ुशी को न तरसे तुझे ख़ुशी तरसे रह-ए-वफ़ा में मुझे काश ऐसी मौत मिले कि बाद-ए-मर्ग मुझे मेरी ज़िंदगी तरसे जहाँ में अहल-ए-सुख़न कम नहीं मगर 'हामिद' तख़य्युलात-ए-हक़ीक़त को शाइरी तरसे