मचलती है मिरे आग़ोश में ख़ुशबू-ए-यार अब तक मिरी आँखों में है इस सेहर-ए-रंगीं का ख़ुमार अब तक कोई आता नहीं अब दिल की बस्ती में मगर फिर भी उमीदों के चराग़ों से हैं रौशन रहगुज़ार अब तक अभी तक निस्फ़ शब को चाँदनी गाती है झरनों में नहीं बदली शबाब-ए-मुंतज़िर की यादगार अब तक जला रक्खे हैं शहराहों पे अश्कों के दिए कब से नहीं गुज़रा कभी इस सम्त से वो शहसवार अब तक शिकस्त-ए-आरज़ू को इश्क़ का अंजाम क्यूँ समझूँ मुक़ाबिल है मिरे आईना-ए-लैल-ओ-नहार अब तक