मदरसा आवारगी और हाथ में बस्ता न था जो किताबों में है लिखा उस को वो पढ़ता न था यूँ तो दरवाज़े खुले थे सारे उस के वास्ते वो मुसाफ़िर रास्तों का एक जा ठहरा न था जो सुनाता था कभी आब-ए-रवाँ की दास्ताँ उस के होंटों का मुक़द्दर ओस का क़तरा न था तिश्नगी ही तिश्नगी थी और सहरा के सराब आँख पानी पर थी लेकिन सामने दरिया न था छोड़ आया था जिसे मैं ख़ुद अना के ज़ोम में फिर पलट कर उस को मैं ने उम्र भर देखा न था मेरे हाथों में है ख़ुशबू उस के हाथों की 'अदीब' जिस्म जिस का छू के मैं ने आज तक देखा न था