माँगता हूँ ख़ैरियत लब पर दुआ रखता हूँ मैं जाने वो कब लौट आए घर खुला रखता हूँ मैं जानता हूँ उस की हर नाराज़गी को मैं मगर अपने हिस्से का भी तो कोई गिला रखता हूँ मैं वस्ल हो या हिज्र उस के अपने होंगे वसवसे उस का जो भी फ़ैसला हो बस वफ़ा रखता हूँ मैं उस को भी तो ग़म बिछड़ने का ये होना चाहिए इस लिए उस की गली से सिलसिला रखता हूँ मैं जो मोहब्बत सच्ची हो तो लौट के आ जाती है आज भी इस जेब में उस का पता रखता हूँ मैं उलझा रहता हूँ मैं अपने ही ख़यालों में कहीं कोई तो ग़म है जो अंदर ही दबा रखता हूँ मैं लाख मुश्किल आए क़ासिम चलता रखना कारवाँ दूर है पर आँखें मंज़िल पर लगा रखता हूँ मैं