गुल के होने की तवक़्क़ो' पे जिए बैठी है हर कली जान को मुट्ठी में लिए बैठी है कभी सय्याद का खटका है कभी ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ बुलबुल अब जान हथेली पे लिए बैठी है तीर-ओ-शमशीर से बढ़ कर है तिरी तिरछी निगाह सैकड़ों आशिक़ों का ख़ून किए बैठी है तेरे रुख़्सार से तश्बीह उसे दूँ क्यूँकर शम्अ' तो चर्बी को आँखों में दिए बैठी है तिश्ना-लब क्यूँ रहे ऐ साक़ी-ए-कौसर 'चंदा' ये तिरे जाम-ए-मोहब्बत को पिए बैठी है