मह-ओ-ख़ुर्शीद-ओ-अख़्तर लिख रहा हूँ तिरे चेहरे का मंज़र लिख रहा हूँ बहुत तज़लील आँखों की हुई है सो अब हर ग़म को अंदर लिख रहा हूँ हरारत वक़्त की कैसे न होगी मैं हर लम्हे को छू कर लिख रहा हूँ ग़म-ए-हस्ती मैं अपना क़द्द-ओ-क़ामत तिरे क़द के बराबर लिख रहा हूँ मैं ऐसे दौर में ज़िंदा हूँ अब तक जभी ख़ुद को सिकंदर लिख रहा हूँ तिरा पैकर नज़र में ढल रहा है कि मैं हुस्न-ए-गुल-ए-तर लिख रहा हूँ मुसलसल धूप में है रक़्स अपना कि बच्चों का मुक़द्दर लिख रहा हूँ मैं अब लगता हूँ ख़ुद को पूरे क़द का मगर ये बात झुक कर लिख रहा हूँ