महक महक सी गई मैं गुलाब की सूरत वो बस गया मिरी आँखों में ख़्वाब की सूरत मैं रेत-रेत चली आबलों के साथ यहाँ जो ज़िंदगी मिली वो थी सराब की सूरत नसीब ने उसे शाहों की ज़िंदगी दे दी पड़ा था दर पे जो ख़ाना-ख़राब की सूरत जिसे है बैर मिरी इज़्ज़त-ओ-वक़ार से वो बना के आया था इज़्ज़त-मआब की सूरत ज़कात देने दिखावे की क्या ज़रूरत है गुनाह करने लगे हो सवाब की सूरत